भारी मात्रा में पानी का इस्तेमाल करने वाली गुजरात की एक फैक्ट्री के सामने एक समस्या थी- गर्मी का मौसम आ रहा था. जितनी आपूर्ति होनी थी, वह नहीं हो पा रही थी. पानी कम खपत करने की कोशिशों के बावजूद पानी की बड़ी कमी थी, जिससे फैक्ट्री बंद हो सकती थी. ऐसे में प्रबंधक को लगभग 1500 रुपये प्रति 5000 लीटर की दर से पानी टैंकर खरीदने को मजबूर होना पड़ा. वह अधिक दाम देने को भी तैयार था. उसे हर दिन सैकड़ों टैंकर की जरूरत थी. पड़ोस के किसानों के लिए यह अच्छी खबर थी, उनमें से अधिकतर के पास कुएं और पंपिंग सेट थे, जिनसे उनकी फसलों को पानी मिलता था. पर फैक्ट्री को पानी बेचना अधिक लाभप्रद था. ऐसे में फैक्ट्री भी अपने उत्पादन को जारी रखकर मुनाफा बना सकती थी और किसान पानी बेचकर अधिक कमाई कर सकते थे. लेकिन सामाजिक दृष्टि से यह लाभदायक स्थिति नहीं है.


पहली बात तो यह है कि कोई भले अधिक दाम देने को तैयार है, पर भूजल का मनमाना दोहन नहीं किया जा सकता है. भूजल स्तर में कमी के सामाजिक घाटे की तुलना में निजी लाभ बहुत मामूली हैं. दूसरी बात, फसलों से पानी को फैक्ट्री की ओर मोड़ना निजी तौर पर समझ की बात भले हो, पर सामाजिक रूप से इसे अधिक समय तक जारी नहीं रखा जा सकता. ऐसे में किसानों के पास कुएं होने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें भूजल के अंतहीन दोहन का असीमित अधिकार है. वैसे भी अनुदान के चलते मिलने वाली सस्ती बिजली से पानी निकालने में बहुत कम खर्च आता है. यह कहानी हजारों तरह से दोहरायी जा रही है. अगर धनी देशों के ग्राहक बासमती की अधिक कीमत देने लगें, तो क्या हम चावल का अंधाधुंध निर्यात कर सकते हैं? अगर किसानों की आमदनी बढ़ाने में मदद मिलती हो, तो आम तौर पर फसलों के निर्यात पर लगे सभी अवरोध हटा दिये जाने चाहिए. पर तब इसका मतलब होगा पानी का निर्यात, भारत में जिसकी बड़ी कमी है. पिछले साल भारत ने 2.20 करोड़ टन चावल के निर्यात से लगभग 90 हजार करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा कमायी थी. लेकिन इसका अर्थ यह भी है कि कम से कम 88 लाख करोड़ लीटर पानी का निर्यात हुआ. हमारे देश में पानी के बड़े अभाव के कारण उस पानी की कीमत कमायी गयी विदेशी मुद्रा से कहीं बहुत अधिक है.


यही बात चीनी निर्यात के साथ भी लागू होती है. पानी की बड़ी खपत वाली फसलों को ऊंची कीमत पर बेचने का तर्क वैसा ही है, जैसा उद्योगों द्वारा निजी कुओं से पानी खरीदने का तर्क, जो असल में खेती के लिए है. हमें केवल 22 मार्च को मनाये जाने वाले विश्व जल दिवस के अवसर पर पानी की कमी पर विचार नहीं करना है. भारत के पास दुनिया के ताजे पानी का महज दो प्रतिशत हिस्सा है, पर वैश्विक जनसंख्या का 17 प्रतिशत भाग है. बेंगलुरु में काम छोड़कर एक बाल्टी पानी के लिए लोगों का लंबी कतार में खड़ा होना एक गंभीर चेतावनी है. कुछ साल पहले महाराष्ट्र के लातूर में रेलगाड़ियों से बहुत बड़ी मात्रा में पानी की कई खेप भेजनी पड़ी थी. कई बार थर्मल बिजली संयंत्रों को बंद करने की नौबत भी आ चुकी है क्योंकि मशीनों को ठंडा रखने के लिए समुचित पानी उपलब्ध नहीं था. ऐसी घटनाओं से 2017 और 2021 के बीच 8.2 टेरावाट घंटे की बिजली के नुकसान का अनुमान है, जो 15 लाख घरों की बिजली आपूर्ति के बराबर है. द वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट का कहना है कि भारत और चीन जैसे देशों में खराब जल प्रबंधन से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में सात से 12 प्रतिशत का नुकसान हो सकता है.


जब किसी देश में इस्तेमाल होने लायक पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1700 क्यूबिक मीटर से कम होती है, उसे जल दबाव वाला देश कहा जाता है. भारत में यह आंकड़ा 1000 से बहुत नीचे है, जबकि अमेरिका में यह उपलब्धता 8000 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति है. भारत में 1951 में पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 3000 क्यूबिक मीटर से अधिक थी. स्पष्ट है कि पानी का यह दबाव आबादी बढ़ने की वजह से है. इसके साथ-साथ पानी आपूर्ति के मौजूदा स्रोतों की गुणवत्ता भी घटती गयी है. ऐसा समुचित जल शोधन नहीं होने तथा आर्सेनिक जहर जैसी चीजों के कारण हुआ है. केंद्रीय जल शक्ति मंत्री ने संसद को बताया था कि देश में भूजल में 230 जिलों में आर्सेनिक और 469 जिलों में फ्लोराइड पाया गया है. भूजल में प्रदूषण से पानी की कमी की समस्या और गंभीर हो जाती है. फिर भूजल के मनमाने दोहन ने स्थिति को विकट बना दिया है. अजीब है कि इसमें सस्ती या मुफ्त बिजली आपूर्ति से मदद मिलती है, जिसका उत्पादन पानी की कमी से बाधित होता है. पानी की कमी की समस्या से निपटना हमारी सबसे बड़ी राष्ट्रीय प्राथमिकता होनी चाहिए और इसके लिए सरकार के हर स्तर से लेकर समाज और परिवार तक प्रयास होने चाहिए. समाधान के लिए निम्न पहलुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है.


सबसे पहले जल संरक्षण, जिसमें वर्षा जल संग्रहण भी शामिल है, होना चाहिए. फिर सही इस्तेमाल पर जोर दिया जाना चाहिए और अधिक खपत वाली फसलों से विमुख होना चाहिए या कम से कम तरीका बदलना चाहिए. तीसरी बात यह है कि पुनः उपयोग और रीसाइक्लिंग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. पीने, खाना बनाने और नहाने के अलावा लगभग 90 फीसदी इस्तेमाल के लिए रीसाइकिल पानी काम में लाया जा सकता है. पुणे में ऐसे संयंत्र शुरू किये गये हैं, जिनसे लोग एक एप के जरिये रीसाइकिल पानी का एक टैंकर मुफ्त मंगा सकते हैं. चौथी बात, एक ठोस नीति और नियमन की आवश्यकता है. पांचवां पहलू है अच्छे जल प्रबंधन के लिए तकनीक का इस्तेमाल और जलाशयों को पुनर्जीवित करना. तमिलनाडु जैसे राज्यों में ऐसे प्रयास हुए हैं. पानी के संबंध में ही नहीं, प्लास्टिक का कम उपयोग या पटाखे नहीं चलाने जैसे मामलों में भी जन जागरूकता बढ़ाना बहुत प्रभावी हो सकता है. बच्चों को जागरूक करना दीर्घकालिक रूप से उपयोगी हो सकता है. हाल में एक विज्ञापन में बच्चों को गीत गाते हुए पानी निकालते दिखाया गया है, पर वहां पानी उपलब्ध नहीं है. यह जल संकट के प्रति आगाह करने के प्रभावी प्रचार का एक अच्छा उदाहरण है. इस विश्व जल दिवस के अवसर पर हम अपने सबसे कीमती संसाधन को बचाने का संकल्प दोहराना चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

QOSHE - रोकना होगा भूजल का मनमाना दोहन - अजीत रानाडे
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रोकना होगा भूजल का मनमाना दोहन

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19.03.2024

भारी मात्रा में पानी का इस्तेमाल करने वाली गुजरात की एक फैक्ट्री के सामने एक समस्या थी- गर्मी का मौसम आ रहा था. जितनी आपूर्ति होनी थी, वह नहीं हो पा रही थी. पानी कम खपत करने की कोशिशों के बावजूद पानी की बड़ी कमी थी, जिससे फैक्ट्री बंद हो सकती थी. ऐसे में प्रबंधक को लगभग 1500 रुपये प्रति 5000 लीटर की दर से पानी टैंकर खरीदने को मजबूर होना पड़ा. वह अधिक दाम देने को भी तैयार था. उसे हर दिन सैकड़ों टैंकर की जरूरत थी. पड़ोस के किसानों के लिए यह अच्छी खबर थी, उनमें से अधिकतर के पास कुएं और पंपिंग सेट थे, जिनसे उनकी फसलों को पानी मिलता था. पर फैक्ट्री को पानी बेचना अधिक लाभप्रद था. ऐसे में फैक्ट्री भी अपने उत्पादन को जारी रखकर मुनाफा बना सकती थी और किसान पानी बेचकर अधिक कमाई कर सकते थे. लेकिन सामाजिक दृष्टि से यह लाभदायक स्थिति नहीं है.


पहली बात तो यह है कि कोई भले अधिक दाम देने को तैयार है, पर भूजल का मनमाना दोहन नहीं किया जा सकता है. भूजल स्तर में कमी के सामाजिक घाटे की तुलना में निजी लाभ बहुत मामूली हैं. दूसरी बात, फसलों से पानी को फैक्ट्री की ओर मोड़ना निजी तौर पर समझ की बात भले हो, पर सामाजिक रूप से इसे अधिक समय तक जारी नहीं रखा जा सकता. ऐसे में किसानों के पास कुएं होने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें भूजल के अंतहीन दोहन का असीमित अधिकार है. वैसे भी अनुदान के चलते मिलने वाली सस्ती बिजली से पानी निकालने में बहुत कम खर्च आता है. यह कहानी हजारों तरह से........

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